पापा की कमीज़

दो मीटर कपडा नहीं, पापा का प्यार है वो;
पहन के लगता है जैसे पापा ने गले लगाया हो |

सिर्फ कपडा नहीं, जुडी है इससे भावनाएं;
रखे है अपने अंदर अनेकों किस्से छिपाये |

उस सलेटी रंग में बसी है खुशबु आपकी;
रखी है संभाल के, जैसे नसीहत आपकी |

उसकी हर एक सलवट में बसा है आपका प्यार;
हर रंग से घुल-मिल जाना, जैसे आपके संस्कार |

सादा है रंग, ठीक आपके विचारों की तरह;
देती है निस्वार्थ प्यार, आपके स्वभाव की तरह |

आपके ख्यालों से मिलता है उसका रंग;
है भले ही हल्का, पर मन में भर देता है उमंग |

जैसे एक-एक धागे का हो आपसे संपर्क;
मिलता है इससे स्नेह बिना किसी शर्त |

बिन बोले ही बहुत कुछ कहती है;
आप ही की तरह,
आपकी कमीज़ भी मुस्कुराती है|

आपकी ये निशानी, आपकी ही तरह सादी ;
है एक कमीज़, पर बड़ी ऊंची है इसकी उपाधि |

मार और प्यार दोनों याद दिलाती है ;
मेरे पापा की कमीज़ आज भी मेरी अलमारी में रहती है |

✍🏻 अमित

9 thoughts on “पापा की कमीज़

  1. बहुत सुंदर कविता।
    यादों और भावनाओं को शब्दों में बहुत सुंदर तरीके से बुना है।

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